Thursday 10 October 2013

श्वेताश्वतरोपनिषद् 1/6

सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते
अस्मिन् हँसो भ्राम्यते ब्रम्हचक्रे ।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा
जुष्टस्ततस्तेनामृत्तात्त्वमेति
(श्वेताश्वतरोपनिषद् 1/6)
व्याख्या-- जो सबके जीवन निर्वाह का हेतु है और जो समस्त प्राणियों का आश्रय है, ऐसे इस जगत् रूप ब्रम्हचक्र में परमब्रम्ह परमात्मा द्वारा संचालित तथा परमात्मा के ही विराट शरीर रूप संसार चक्र में यह जीवात्मा (ह्ँसो) अपने कर्मों के अनुसार उन परमात्मा द्वारा घुमाया जाता है । (श्वेताश्वतरोपनिषद् के मन्त्र संख्या 6/15 और 3/18 में हंस को ही प्रकाशमय परमेश्वर कहा गया है जबकि प्रकाशमय हंस जीवात्मा मात्र ही है परमेश्वर नहीं है । यह विशुध्दत: ईश्वर भी नहीं है। यह प्रकाशमय हंस जीव का आत्मामय रूप अर्थात् जीवात्मा है और परमतत्त्ववम् रूप परमेश्वर या परमात्मा से प्रकट और पृथक् होने के कारण उसका पुत्र है। वास्तव में वह परमतत्त्वम् ही परमेश्वर है, प्रकाशमय हंस परमेश्वर नहीं है। यहाँ पर ऐसे उस हँस रूप जीवात्मा को परमब्रम्ह-परमात्मा द्वारा इस संसार चक्र में घुमाया जाना बताया गया है ।(जब तक यह जीवात्मा (ह्ँसो) इसके संचालक (परमात्मा) को जानकर उनका कृपा पात्र नहीं बन जाता, अपने को उनका प्रिय नहीं बना लेता, तब तक इस जीवात्मा (हँसो) का इस चक्र से छुटकारा नहीं हो सकता । जब यह जीवात्मा (हँसो) अपने को व सबके प्रेरक परमात्मा को भली-भाँति पृथक्-पृथक् जान-समझ लेता है कि उन्हीं के घुमाने से मैं इस संसार चक्र में घूम रहा हूँ और उन्हीं की कृपा से छूट सकता हूँ, तब वह उन परमेश्वर का प्रिय बनकर उनके द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है । (कठोपनिषद् 1/2/23 और मुण्डकोपनिषद् 3/2/3 में भी इसी प्रकार का वर्णन
है।) फिर तो वह अमृत 'तत्त्वम्' को प्राप्त हो जाता है,। जन्म-मरण रूप संसार चक्र से सदा के लिए छूट जाता है । परमशान्ति एवं सनातन परमधाम को प्राप्त कर लेता है

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